Saturday, April 26, 2008

जाने क्या थी वो मंजिल जिसके लिए
उम्र भर मैं सफर तय करता रहा

जागा सुबह भीगी पलकें लिए
रात भर मेरा मांजी बरसता रहा

खता तो अभी तक बताई नहीं
सजा जिसकी हर पल भुगतता रहा

कमी ढूंढ पाया न खुद में कभी
बस हर दिन आइना बदलता रहा

कसम दी थी उसने न लब खोलने की
दबा दर्द दिल में सुलगता रहा

खामोशी से कल फिर हुई गुफ्तगू
वो कहती रही और मैं सुनता रहा

बेईमान तरक्की किये बेहिसाब
मैं ईमान लेकर भटकता रहा

सितारे के जैसी थी किस्मत मेरी
मैं टूटता रहा, जहान परखता रहा

खिलौना न मिल पाया शायद उसे
खुदा का दिल मुझसे बहलता रहा

न पाया कोई फूल सूखा हुआ
सफ्हे वक़्त के मैं पलटता रहा

1 comment:

Anonymous said...

बहुत ही अच्छी रचना है आपकी- सितारों के जैसी थी किस्मत मेरी, मै टूटता रहा जहान परखता रहा। अगर लाजवाब कहें तो भी कम..