Monday, May 19, 2008

तुझसे उल्फत की बात कर बैठे
हाय ये क्या गुनाह कर बैठे

पी के लिख बैठे वसीयत अपनी
अपना दिल तेरे नाम कर बैठे

यादों को तेरी रुख्सती देकर
दिल के घर को मकान कर बैठे

डाल के इक नज़र मोहब्बत की
हमको अपना गुलाम कर बैठे

मुझ दीवाने का हाल पूछते हो
तुम ये कैसा सवाल कर बैठे

बारी आई खुदा के सजदे की
हम तुम्हारा ख़याल कर बैठे

ओढ़ कर वो हया की चिलमन को
चेहरा अपना गुलाल कर बैठे

दर्दे दिल का सबब सुनो हमसे
इश्क हम बेपनाह कर बैठे

Wednesday, May 14, 2008

याद उसकी आई फिर बरसों के बाद
हमने फिर छल्काया जाम बरसों के बाद

आँगन में खेलते हैं मेरे बच्चों के बच्चे
लौटा है बचपन मेरा बरसों के बाद

सौ बार पढ़ चूका हूँ सुबह से शाम तक
आया है मेरे नाम ख़त बरसों के बाद

ग़म का मारा था,कजां को देखकर
मुस्कुराया आज वो बरसों के बाद

मुफलिसी के दिन गए,ओहदा मिला
पहचाना उसने मुझे बरसों के बाद

Saturday, May 10, 2008

शाम है ग़मगीन रात भी उदास है
साए तेरी यादों के मेरे आसपास हैं

शब भर गुजार आया मयखाने के अन्दर
बुझती नहीं है फिर भी ये कैसी प्यास है

ये दिल भी तो कमबख्त मेरी मानता नहीं
जो जा चूका है दूर उसी की तलाश है

सीखा कहाँ से तुमने ग़म में भी मुस्कुराना
जीने की ये अदा तो बस फूलों के पास है

उसके देखने से हुआ इश्क का गुमान
अल्लाह जाने सच है या मेरा कयास है

Monday, May 5, 2008

इस कदर वो शख्स ग़म-ए- दौरां का शिकार है
शमा-ए-बज्म था वो अब चरागे मजार है

जी भर के ज़ख्म दीजिये अब आपकी मर्ज़ी
वक़्त की चार:गरी पे हमको ऐतबार है

आओ फरिश्तों,आलमे फानी से ले चलो
शबे वस्ल के लिए ये दिल बेकरार है

आबे हयात से तेरे अश्कों से भिगो दे
दामन मेरा ज़रा ज़रा सा दागदार है

और किसी इश्क की ख्वाहिश वो क्या करे
इश्के हकीकी में जो दिल गिरफ्तार है


ग़म-ए- दौरां -दुःख का समय
आलमे फानी - संसार
आबे हयात - अमृत
शबे वस्ल - मिलन की रात
इश्के हकीकी - ईश्वर से प्रेम
चार:गरी-इलाज

Saturday, May 3, 2008

बिखरे ख़्वाबों को सीने से लगा रखा है
हमने वीरानों में आशियाना बना रखा है

ठोकरें देकर जिसने संभलना सिखाया
हमने उस शख्स का नाम खुदा रखा है

मिठास मोहब्बत की उसके नाम करके
आँखों के खारेपन को बचा रखा है

धड़कनें जाने क्यों बेताब हुई जाती हैं
उफ़,दिल ने क्या शोर मचा रखा है

रूठ के बैठे हैं आज हमसे वो
दरबार रकीबों का लगा रखा है

होके रुसवा भी सहेजते हैं दर्दे इश्क
किसने इस अदा का नाम वफ़ा रखा है

लगता है कोई काफिर मुलाक़ात कर गया
खुदा ने बेवक्त ही मयखाना सजा रखा है

संग हो न जाए बदगुमान कहीं
हमने मंदिर में आइना लगा रखा है

नंगे पाँव चुभ जाए न खार कहीं
तेरे लिए ही चिराग-ए-चाँद जला रखा है

Monday, April 28, 2008

भूलें दोहराता हूँ अक्सर
मैं ख्वाब सजाता हूँ अक्सर

क्यों तेरी गलियों में जाकर
खुद को बहलाता हूँ अक्सर

जब जब ईमान बुलाता है
मैं चुप हो जाता हूँ अक्सर

सीने के ज़ख्म नहीं भरते
मैं ठोकर खाता हूँ अक्सर

झूठ कहाँ कह पाता हूं
मैं पीकर गाता हूं अक्सर

तेरे सपनों में आ आकर
मैं तुझे रुलाता हूं अक्सर

अपने सीने से लौ देकर
सूरज सुलगाता हूं अक्सर

एक रोज़ बुना था एक रिश्ता
उसको उलझाता हूं अक्सर

बर्तन घर के न बिक जाएं
मैं खुद बिक जाता हूं अक्सर
ग़म की फितरत मुझे सताने की
मेरी भी जिद उसे हराने की

छुपा न पाओगे आँखों की नमी
छोड़ो कोशिश ये मुस्कुराने की

दिल तुम्हारा है सच्चे मोती सा
क्या ज़रूरत तुम्हे खजाने की

टूट कर चाहना फिर मर जाना
यही तकदीर है परवाने की

सीने की कब्र में मुर्दा दिल है
न करो जिद मुझे जिलाने की

खेत छूटे, न रोज़गार मिला
ये सजा है शहर में आने की

मुफलिसी में तुझे पुकारा है
ठानी है तुझको आजमाने की