सच्चाई और ईमान को परखने लगा है
लगता है खुदा पीकर बहकने लगा है
कल तौबा करके आया था खुदा के सामने
आज मयकदे को देखकर मचलने लगा है
सह न सका हो गयी जब ग़म की इंतिहा
बरसों का रुका बादल बरसने लगा है
ताउम्र भागता रहा लोगों की भीड़ से
अब कब्र में दुश्मन को भी तरसने लगा है
टूटा जो इश्क में तो साकी ने दी पनाह
मयखाने में जाकर वो अब संभलने लगा है
इस कदर तन्हाई से घबराया हुआ है
हर कमरे में आइना वो रखने लगा है
क्या खता हुई जो गुनाहगार बन गया
किताबे माजी के सफ़े पलटने लगा है
हमदर्द बनके आया था वो कत्ल कर गया
अब दोस्तों के नाम से डर लगने लगा है
Saturday, April 26, 2008
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1 comment:
बहुत सुन्दर और सुगम रचना है . बार बार पदने को दिल चाहता है
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